बीमारी का इलाज कराने तक तो दवा अमृत है, लेकिन अवधि पार होने या आवश्यकता से अधिक खरीदे जाने की अवस्था में इसके निस्तारण की मौजूदा प्रक्रिया न सिर्फ पर्यावरण को, अपितु लोगों को भी प्रभावित करती है।
आम तौर पर भारत में बिना डॉक्टर की सलाह दवाइयां खरीदने का चलन है। थोड़ी-सी दवा लेने के बाद लाभ होने पर दवा को रोक देने का भी चलन है। सामान्यतः लोगों को यह एहसास भी नहीं होता कि अनुपयोगी दवा को कूड़ा समझकर फेंक देने से क्या-क्या दुष्प्रभाव हो सकते हैं। यह एक गंभीर समस्या है, जिसमें लगातार वृद्धि हो रही है।
इसका एक कारण जानकारी का अभाव है, लेकिन दवा कंपनियों द्वारा की जाने वाली पैकिंग नीति भी इसके लिए कम दोषी नहीं है। एक सर्वेक्षण के अनुसार, घरों पर एकत्रित हो रही दवाओं में लगभग 30 फीसदी दर्द निवारक, 17 फीसदी विटामिन और 11 फीसदी मरहम या अन्य गोलियां पाई जाती हैं, जो अनुपयोगी होने के कारण बाद में फेंक दी जाती हंै। एक अन्य सर्वे के अनुसार, भारत में हर घर से 10 से 70 प्रतिशत अनुपयोगी एवं अवधि पार दवाइयां फेंक दी जाती हैं।